Friday, December 10, 2010

हेलन का कुत्ता



ब्रूक्स की फोटो


मेरी मित्र हैं हेलन. उनके कुत्ते का नाम है 'ब्रूक्स'. हाल ही में हेलन को दस दिन के लिए दूसरे शहर जाना था और वो किसी कारणवश ब्रूक्स को अपने साथ नहीं ले जा सकती थीं. तो उन्होंने ब्रूक्स के लिए दस दिन का 'पेट होटल' (जी हाँ, सही पढ़ा आपने. यहाँ जानवरों के लिए अलग से होटल है)बुक करवाया. हेलन अभी अभी लौट के आई हैं, और आज लंच पर मैंने उत्सुक्तावश उनसे 'जानवरों के होटल' के बारे में पूछा. दस दिन का छः सौ डॉलर (खाना-पीना, टहलाना, मन बहलाना इत्यादी मिला के) और ....ब्रूक्स को 'थाईरोयेड' है जिसके लिए रोज सुबह दवाई देनी होती है और जिसका खर्चा है बारह डॉलर प्रति दिन. कुल मिला कर सात सौ बीस डॉलर दस दिन अपने कुत्ते की देखभाल करवाने का. मैंने पूछा की दवाई देने का इतना महंगा क्यूँ? उन्होंने बताया की जो लोग कुत्तों को दवाई देते/खिलाते हैं, वो खास तौर पे "ट्रेन" किये जाते है, और उस होटल में इस 'ट्रेनिंग' की सर्टिफिकेट वाले ही जानवरों को दवाई खिलाते हैं.

मैंने हेलन से कहा की इतने पैसे खर्च करने पर उन्हें अफ़सोस नहीं हुआ? इस पैसे से वो कुछ और भी कर सकती थीं. तो उन्होंने कहा की ब्रूक्स उनके बच्चे जैसा है, और वो अपने बच्चे के प्रति लापरवाही नहीं कर सकतीं. इस देश में जानवरों के प्रति जितना प्रेम और करुना भाव मैंने देखा है, उतना हम और आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं. अभी पिछले हफ्ते की बात है, मैं ऑफिस जा रही थी रास्ते में एक जगह सारी गाडियां रुकी हुई थी क्यूंकि एक छोटा सा कुत्ते का बच्चा सड़क पर भटक रहा था, जो की यहाँ के लिए असोचनीय है, गाडियां इस लिए रुक गयीं ताकि वो बच्चा किसी गाडी के नीचे न आ जाये. इतने में मैंने देखा की पुलिस और 'एनिमल कंट्रोल' की गाडी वहां आई और उस बच्चे को उठा कर सुरक्षित स्थान पर ले गयी, फिर यातायात खुला.

आपने अखबारों या समाचार में पढ़ा होगा की किसी ने अपने कुत्ते या बिल्ली के लिए अरबों-खरबों की संपत्ति छोड़ दी है, हेलन न तो अरबों की मालकिन हैं और न ही किसी बड़े अमीर खानदान से रिश्ता है उनका. हमारे आपकी तरह माध्यम वर्गीय परिवार से आती हैं लेकिन अपने जानवरों से उतना ही प्रेम करती हैं जितना एक माँ अपने बच्चे से करती है.

Saturday, November 20, 2010

अमेरिका में मुन्नी

हमारे अपार्टमेंट का वार्षिक दिवाली महोत्सव जहाँ बच्चे, बूढ़े और जवान सभी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं! ये गाना मैंने इन बच्चों के लिए तैयार करवाया था, तो देखिये की "मुन्नी" यहाँ अमेरिका में भी कैसे तहलका मचा रही हैं!

Tuesday, November 2, 2010

बिहारी जी.पी.एस सेवा





विज्ञान की अनगिनत सुविधाओं में से एक है जी.पी.एस., जहाँ जाना हो वहां का पता उसमे डालिए, सैटेलाईट की मदद से जी.पी.एस आपको मार्ग-दर्शन करवाएगा. ऐसी सेवा भारत के बड़े राज्यों में शुरू कर दी गयी है, लेकिन मैं सोच रही थी की यही सेवा अगर बिहार में बिहार के ही अनूठे अंदाज़ में शुरू की जायेगी तो कैसा रहेगा? हमें किस किस तरह मार्ग दर्शन करवाएगा?

जी.पी.एस ऑन करते ही कुछ आवाज़ आएगी - "कहाँ जाना है जी? आएँ?? चिरइयांटाड? आच्छा"

-"सीधे ले लीजिये, तनी सा दाहिने...हाँ हाँ ...ई का महाराज...बाएं कीजिये. चलिए ... एकदम बूझईबे नहीं करता है आपको ता". थोडा आगे जाने के बाद, "अब एकरा बाद ता हमको बूझईबे नहीं कर रहा है....एक काम कीजिये ना...गडिया रोक के कौनो से पूछ लीजिये, हर बार अईजे आकर कनफुजिया जाते हैं"
किसी तरह आप अपने गंतव्य पर पहुंचे, वहां से फिर कहीं और जाने की इच्छा हुई, जी पी एस में पता डाला, डालते ही झुंझलाते हुए जवाब मिला "का जी...दिन भर टनडेली बुझाता है आपको ?, माने नहीं सुधरीएगा?"

अब सड़क पर गड्ढे तो होंगे ही, गाडी गड्ढे में जाते ही आवाज आई "का जी? आँख है की आलू का फांक? देखाई नहीं देता है का? ई ट्रकवा वाला सब ना एकदम ओमपुरी का गाल बना के रख दिया है रोड को, सच कह रहे हैं कौनो दिन ऊ सब हमको यूज किया ना...तब देखिएगा, ससुर के नाती को नहीं पहुंचा दिए झंझारपुर के बदले भालेसरगंज न, तब कहियेगा "
आपने जी पी एस के हाँथ जोड़े और आगे का रास्ता बताने का अनुरोध किया....."अब सोझे लीजिये, आss...दूर्र मरदे....स्पीड्वा बढाईये न, का आप भी एकदम सूकसुका के चला रहे हैं. कल्हे पिन्टुआ ले गईस था, ओकर गरल फेरेण्ड के घरे, फुलटुस गंज तरफ. एतना कचरा, धूल फांके की खोंखते खोंखते दू ठो सर्किट ख़राब हो गया. आ पिछलका हफ्ता राम परवेस के बेटी के गौना वाले गाडी में ले गया था नरकटियागंज सब फिट करके , भर रास्ता सब हमरा बगल में रखल हनुमान जी के फोटो के सामने इतना अगरबत्ती आ धुंआ जलाया सब की लगा की ससुरा सब सर्किटवे स्वाहा हो जायेगा"

आप अपनी यात्रा पूरी करके घर पहुँचने ही वाले थे की सोचा साईड में रुक कर तरकारी खरीद ली जाए, लेकिन तभी आवाज आई "ढेर तिडिंग-भिडिंग मत बतियाईये, चुप चाप से घरे चलिए आ मेरा बैटरिया जो भुकभुका रहा है, ओकरा चारज में लगाईये"

"जा झाड के बचवा!!!"

Saturday, September 18, 2010

सीख



लगता है दिमाग में जंग सा लगता जा रहा है. जंग भौतिक सुख का, आरामखोरी का, पैसों का. बस सब कुछ चाहिए....किसी तरह. कभी कभी सोचती हूँ की माँ पापा ने ऐसा तो नहीं सिखाया था फिर ऐसी कैसी हो गयी मैं? स्वार्थी...
पता नहीं ये सिर्फ मेरे साथ ही होता है या सबके साथ की जब भी लाइफ में थोडा 'उड़' रही होती हूँ, तभी इश्वर ऐसी रचना रचता है की धरातल पर आ जाती हूँ. जीवन की कडवी सच्चाई आँखों के सामने तैर जाती है और मुझे आत्मचिंतन करने पर विवश कर देती है.

ऐसी ही एक घटना कुछ समय पहले मेरे साथ हुई जब मैं अपने माँ पापा और भाई के साथ वैष्णो देवी गयी थी. हमने जाने के लिए हैलिकोप्टर सेवा पहले ही बुक कर ली थी लेकिन आने का कुछ पक्का नहीं था. भवन के बाद हम सब पैदल भैरो बाबा के दर्शन करने गए, वहां से जब नीचे जाने की बारी आई, तो मैं और भाई सांझी छत के हैली पैड पर भाग के गए लेकिन उस दिन के लिए हेलिकोप्टर सेवा पूरी तरह से बुक थी सो हमें वहां से खली हाथ लौटना पड़ा. बहुत झुंझलाहट हुई, गुस्सा आया, भुनभुनाते हुए वहां से नीचे उतरना शुरू किया और थोडा आगे गयी ही थी की एक ऐसे व्यक्ति को देखा जिसे देख कर मैं ठिठक गयी, निशब्द हो गयी, और ........पता नहीं .....

वो बिहार से जाकर जालंधर में मजदूरी करता था, बायाँ हाथ नहीं था, बायाँ पैर कई बार टूट चूका था इसलिए वो भी बेकार था, अकेला था, ढेढ़ दिन पहले से ही चढाई शुरू कर दी थी, लगातार ढेढ़ दिन चलकर पूरी तरह से थक कर निढाल हो चुका था, फिर भी भैरो बाबा तक गया. और अब धीरे धीरे लंगडाते हुए नीचे उतर रहा था. एक पुराना फटा चिटा शर्ट, फटी हुई पैंट, शर्ट के बटन से लटकाया हुआ प्रसाद का बैग और कमर में खोंसी हुई एक और छोटी सी पोलिथीन..शायद उसमे थोडा सा कुछ खाने पीने का रखा हुआ था. मैंने रुक कर पूछा "आपको कोई मदद चाहिए?", उसने मना कर दिया. फिर मैंने उसके पैर में बंधी पट्टी के बारे में पूछा, उसने कहा की टूट गया है. "अगर ...प्लास्टर ..हो तो...क्या ठीक हो जायेगा?" मैंने बहुत झिझकते हुए पूछा, उसके स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती थी. फिर उसने बताया की वो पैर इतनी बार टूट चुका है की डाक्टर जवाब दे चुके हैं. ये सब देख सुन के मेरी आत्मा रो रही थी, और मैं उसी 'माँ' से मन ही मन ये सवाल कर रही थी की क्या उनको इसका दुःख नहीं दिखता? मैंने हिम्मत जुटाई और कहा..."...मैं आपके लिए घोडा कर देती हूँ, आप उससे नीचे चले जाईये", उसने कहा "नहीं...रहने दीजिये...मैं चला जाऊँगा...मेरी किस्मत में यही है". उसके इस जवाब से मैं हतप्रभ रह गयी और मैं वहीँ किनारे बैठ कर सोचने लगी की मैं थोड़े देर पहले क्यूँ झुंझला रही थी? क्यूंकि मुझे 'हैलिकोप्टर' नहीं मिला??? छी:....

**मेरा सौभाग्य था की एक फोटो ले पायी मैं उस स्वाभिमानी व्यक्ति के साथ जिसने मुझे मेरे जीवन की इतनी बड़ी सीख दी ....आप सबके साथ वो फोटो बाँट रही हूँ!

Sunday, August 1, 2010

बाज़ार जनित बीमारियाँ





भारत में कुछ सालों से नए नए प्रकार की बीमारियाँ फ़ैल गयी हैं, जिनका इलाज करने के बजाये सभी उससे पैसा भुनाने में लगे हुए हैं! इनके नाम हैं फ्रेंडशिप डे, वैलेंटाइन डे इत्यादी. इनका जितना बुखार मैंने इंडिया में देखा है, वैसा किसी और देश में नहीं देखा है.

जनवरी से ही टी वी पर ऐसे कार्यक्रमों का तांता लग जाता है. चाहे वो कोई सीरियल ही क्यूँ ना हो, उसमे भी एक स्पेशल एपिसोड इसपर न्योछावर कर दिया जाता है! उत्पादनों के प्रचार से अखबार, रेडिओ और टी वी खचाखच भर जाता है. रेस्टुरेंट भी आकर्षक पैकेज निकाल देते हैं, फ्रेंडशिप डे के अवसर पर - चार दोस्त पर पांचवा खाए फ्री. और वैलेंटाइनस डे पर तो ऐसी साज सज्जा होती है की पूछिए मत. चारो ओर झाड-फानूस पर दिल, धड़कता हुआ दिल, लटकता हुआ दिल, तीर मार हुआ दिल, घायल दिल, जलता हुआ दिल, सब वेराईटी दिख जायेगी आपको.

मुझे तो इन सब में आर्चीज़ गैलरी की भी गहरी साज़िश लगती है जो इसी की रोजी-रोटी खाते हैं . इतने महंगे महंगे कार्ड, मग्गा और ये 'फ्रेंशिप बैंड" इत्यादी बेचते हैं, वैसे दोष हमारा भी उतना ही है, हम खरीदते हैं, तो ये बेचते हैं. मेरी नज़र से जो ५०-१०० रुपये हम इन सब चीज़ों में बर्बाद करेंगे (बर्बाद इसलिए कह रही हूँ क्यूंकि जो सच्चे दोस्त हैं उनको किसी कार्ड या बैंड की ज़रूरत नहीं है और जिन्हें है, वो सच्चे दोस्त नहीं हैं) , उन्ही पैसों से किसी का भला करें, किसी गरीब की मदद करें, घर में काम करने वालों के बच्चों के लिए कॉपी, पेंसिल इत्यादी खरीद दें, किसी रिक्शे वाले को २ पैसे ज्यादा दे दें. मानवता का भला करें! काश, इसी तरह हम "नैतिकता दिवस" या "मानवता दिवस" भी मनाते.
हम सब अपने अपने घरों से ही शुरुवात करें, अपने छोटों को समझाएं, उनको कमज़ोर और ज़रूरतमंद लोगों के प्रति और संवेदनशील बनायें तो शायद हम किसी के चेहरे पे मुस्कान ला सकते हैं.

Sunday, July 18, 2010

अमानत


आज सुबह घर पर फोन किया तो पापा ने बताया की मम्मी राशि को लेकर मार्केट गयी हैं, ये बताते हुए पापा का गला रुंध रहा था, मैं ठीक से कुछ समझ नहीं पायी लेकिन उस समय विस्तार जानकारी लेना उचित नहीं समझा. बाद में पता चला की राशी की शादी तय हो गयी है, और मम्मी उसी की तैयारी के सम्बन्ध में गयी थीं.

राशी मेरी मम्मी की सबसे पुरानी और प्रिय मित्र, सिन्धु मौसी, की बेटी है. मम्मी और मौसी एक ही कालोनी में बड़े हुए, एक ही स्कूल में गए, कॉलेज और दोनों की शादी भी लगभग आस पास ही हुई. आज बस इतना अंतर है की सिन्धु मौसी इस दुनिया में नहीं हैं, और राशि अपने नाना नानी के साथ रहती है.

करीब १८ साल पहले सिन्धु मौसी की हत्या कर दी गयी थी. उनके पति ने उन्हें जला कर मार डाला. रिपोर्ट से ये भी पता चला था उनके जले हुए शरीर पर चीनी चिपकी हुई थी. राशी तब बहुत छोटी थी, लेकिन उसे ये अच्छी तरह याद है की जब उसकी मम्मी जल रही थीं, तब उसके "पापा" उनपर चीनी छिड़क रहे थे. आरा में केस दर्ज किया गया, मेरी मम्मी भी गवाह की लिस्ट में मौजूद थीं. पापा और मम्मी ने पटना-आरा का कई सालों तक बहुत चक्कर लगाया. हत्यारे को मात्र ४ साल की सज़ा हुई.

राशी मेरे माँ पापा के लिए सिन्धु मौसी की अमानत थी. होली हो या दिवाली, अगर मेरे लिए कुछ आता तो वो राशी के लिए भी आता. मेरे घर के पूजा स्थल पर एक छोटा सा बटुआ रखा हुआ है, मम्मी बताती हैं की वो मौसी का दिया हुआ है, उनकी आखिरी गिफ्ट. मौसी बुनाई बहुत अच्छी करती थीं, उन्होंने मेरे पापा के लिए एक स्वेटर बनाया था, जिसके कई धागे निकल चुके हैं हैं लेकिन पापा ने वो आज भी घर के बड़े संदूक में बहुत संभाल कर रखा है. आज जब राशी की शादी हो रही है, माँ और पापा की आँखें नम हैं और ह्रदय भावनाओं से भरा हुआ है, कन्यादान जो करना है.

आज घर में मौसी की पुरानी यादें घूम रही हैं!

Tuesday, June 29, 2010

वो तीन लोग



कभी कभी आप अनजाने में ऐसा काम कर लेते हैं जो आप जानते हुए सोच भी नहीं सकते. कल कुछ ऐसा ही मुझसे हो गया या यूँ कहिये की मैंने कर दिया. और उस काम की 'महानता' का मुझे आज सुबह की टीम हडल में पता चला.

पिछले हफ्ते घोषणा की गयी थी की सोमवार को हमारे ऑफिस में 'टॉप इक्सेक्यूटीव्स' आने वाले हैं. ऐसी घोषणा का उद्देश्य आपको ये बताना होता है की थोडा तमीज वाले कपडे पहने, अपने डेस्क को साफ़ सुथरा रखें और 'आदमी' नज़र आयें. ऐसी घोषणाएं हमारे सेंटर के लिए बहुत आम बात है, हर महीने कुछ ना कुछ लगा रहता है. मेरे लिए कल का दिन भी वैसा ही था जैसा बाकी दिन होता है; एकदम 'नो बिग डील' जैसा. शाम को काम ख़तम करके, मैं अपने तीसरे माले के लिफ्ट के पास खड़ी थी, वहां तीन लोग और आकर खड़े हो गए. वो तीनो देखने से ही 'टॉप क्लास' वाले लग रहे थे, तो कौन सी बड़ी बात थी. रोज का ही टंटा है ये तो. मैं वहां आराम से हेडफोन लगा कर खड़ी थी. थोड़े देर बाद मैंने उन तीनो से कहा -"ये जो लिफ्ट है ना, ये दुनिया की सबसे धीमी गति से चलने वालों में से एक है, मैं सीढ़ियों से नीचे जा रही हूँ....अगर आप चाहें तो मेरे पीछे चल सकते हैं" वो तीनो लोगों ने मुझे धन्यवाद बोलकर मेरे पीछे हो लिए. सीढ़ियों पर उन्होंने मुझसे इधर उधर की बातें पूछीं, मौसम इत्यादि के बारे में. नीचे उतारकर मैं उन्हें मेन लोंबी तक ले गयी. वहां मैंने कुछ 'सीक्रेट सर्विस' वालों को देखा, थोडा चौंकी...फिर सोचा...होंगे कोई, 'नो बिग डील'.
आज सुबह हडल में बताया गया की कल जो ''टॉप इक्सेक्यूटीव्स'' आये थे, उनमे मौजूद थे - CEO of France Airlines, CEO of Honeywell, CEO of Raytheon, CEO of IBM, CEO of American Express, CEO of Tokyo Stock Exchange ...etc etc. इनके नाम की घोषणा सुरक्षा कारणों से पहले नहीं की गयी.
सुन कर पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी. अभी अभी डेस्क पर लौटकर सर्च किया तो फोटो से पता लगा की 'वो' तीन लोग जिनको मैंने लिफ्ट की खासियत बताई थी, वो थे CEO of American Express, CEO of DOW Chemical और CEO of Boeing.

Thursday, June 24, 2010

सेम टू सेम


आजकल जहाँ देखिये वहीँ अंग्रेजी स्पीकिंग सेंटर खुला हुआ है. बड़े शहरों की बात छोडिये, छोटे गाँव देहात में भी जिसे भी थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है, वही क्लास चलता है. मेरे गाँव पर भी शिवाला पर बिसुनधरवा का बेटा क्लास चलाता है. इस बार देख कर आये, बड़ा बढियां चल रहा है छौंड़ा का बिजनेस.
बालीवुड के साथ साथ हालीवुड का हउवा भी देख ही रहे हैं, स्पाइडर मैन का मकड़ी-बबुआ बन चुका है जिसमे टोबे मैग्वायेर बोल रहे हैं - "हम तोहरा मुआ देब रे राक्छ्स!!!"

हम पिछलग्गू की तरह हर काम कर रहे हैं, उनके जैसा पहिनना चाह रहे हैं, उनके अंदाज में बतियाना चाह रहे हैं, और ये लोग तो ना जाने कब से हमारी ही शैली चुरा कर बड़े कान्फिडेंस के साथ प्रयोग कर रहे हैं. उदहारण के लिए देखिये, अमेरिकन्स जब किसी से मिलते हैं तो कहते हैं "what's up man!!", और हमारे यहाँ बच्चे बूढ़े और जवान, "का हो मर्दे!!!"
दूसरा उदहारण, "Get outta here!!", "चल भाग हियाँ से"
एक और लीजिये, "Are you out of your mind??", "बउरा गईल बाड़े का रे?"
देखा ना, सब नक़ल किया हुआ है. सेम टू सेम. हँ न त!

इसलिए, मैं अंग्रेजी सीखने के लिए लुलुआये लोगों से यहीं कहूँगी की बस ५०% मेहनत कीजिये बाकी शैली तो अपनी है ही!

जा झाड के!

Wednesday, June 23, 2010

आपको यकीन हुआ क्या?

आजकल जिस ब्लॉग पे जाते हैं, वहां ये 'ईंडली' वाले पहिले से ही अपना कमेन्ट डाले रहते हैं -

नमस्ते,

आपका बलोग पढकर अच्चा लगा । आपके चिट्ठों को इंडलि में शामिल करने से अन्य कयी चिट्ठाकारों के सम्पर्क में आने की सम्भावना ज़्यादा हैं । एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा ।


पहले तो इसका मतलब क्या है? जैसे, ब्लोग्वानी और ब्लोग्वार्ता, चिठ्ठा चर्चा इत्यादि तो नाम से ही समझ में आ जाते है, पर ये ईंडली? ई का है भईया?

अपने ब्लॉग पर इनका कमेन्ट देख कर अच्छा लगा था, फिर तो हर किसी के ब्लॉग पर यही कमेन्ट देखने को मिला.
सबसे मजेदार ये वाली लाइन है - "एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा", हो गया बाबा, विशवास हो गया हमलोग को, देखिये हम तो आपका लोगो भी अपने बिलोग पे साट दिए हैं, अब बोलिए.....आगे?

Saturday, June 19, 2010

चार शरीफ लडकियां




निहायत ही शरीफ लोगों का मोहल्ला है मेरा! शरीफ मोहल्ला, शराफत टपकाते हुए लोग और शराफत से लथ-पथ हम चारों.

जुलाई का महिना था, तीन दिन से बरसात हो रही थी, हर जगह पानी भर गया था. शाम के समय, मैं, सीमा(मेरी पकिया सहेली), गुडिया दी(सीमा की दीदी) और नीतू दी(मेरी चचेरी दी). हम चारों शाम होते ही किसी एक के घर पे मिलते थे, थोड़ी बतकही, थोड़ी पड़ोसन की चुगली और थोड़ी बहुत बड़ी बड़ी बातें. उस दिन मेरा आठवीं कक्षा का रिजल्ट निकला था, समोसे लेके मैं और नीतू दी सीमा के घर पहुंचे. खा रहे थे, टी वी देख रहे थे...और बाकी सब बातें तो उसके साथ चलती ही रहती थीं. चुगली इत्यादि.
टी वी पे चिरंजीवी की कोई पिक्चर आ रही थी, . उसमे वो सिगरेट के धुएं को बड़े स्टाइल से उड़ा रहा था, अचानक सीमा ने मुझसे पूछा - "ई सिगरेट पीने में क्या मजा आता होगा रे?" "मुझे क्या पता, मैंने कभी थोड़े पी है". धीरे धीरे इस उत्सुकता ने हम सबमे सिगरेट पीने की लालसा जगा दी. उद्देश्य था मात्र ये देखना की उसमे है क्या? आखिर क्या बात है इसमें? लेकिन सिगरेट आएगा कहाँ से? दूकान से? और लाएगा कौन? बलि का बकरा तो हमें ही बनना था सो बन गए. अब बात आई की इस काम को कैसे अंजाम दें की किसी को हमपर शक ना हो. अरे भाई...आखिर शरीफों का मोहल्ला है, यू नो!
सब जगह पानी लगा हुआ, हम जाएँ कैसे? लेकिन ये साली सिगरेट की तलब जो ना करवाए. घुटने भर पानी में हेलते हुए चल दिए एक झोला और छाता लिए हुए. झोला इस पूरे नाटक तो थोडा 'नार्मल' लुक देने के लिए था. रास्ते भर हम ये बतियाते रहे की उस गुमटी पर बोलना क्या है? उ ससुरा गुमटिया वाला मामाजी को जानता है, कहीं बक दिया तो? पानी हेलते हालते पहुंचे तो गुमटी बंद. अब क्या करें? वापस कैसे चले जाएँ? सरदार क्या कहेगा? खाली हाँथ आये? हम दोनों ने तय किया की पास वाले मार्केट जाकर ले आयेंगे. १.५ की.मी पानी, पांकी में टहलते हुए मार्केट पहुंचे, गुमटी खुली देख के आँखें ऐसी चमकी जैसे चाईनीज टार्च. गुमटी पर पहुंचते ही मैंने कहा ..."दू ठो सिगरेट दे दीजियेगा", "कौन बाला चाहिए?" "अरे सीमा...नानाजी कौन सा सिगरेट बोले थे रे लाने के लिए....??" "सायद विल्स बोले थे" "हाँ हाँ....दू ठो विल्स दे दीजिये" (विल्स इसलिए क्यूंकि टी वी पे बहुत एड देखा था और कुछ 'ऊँचे' लोगों को पीते हुए देखा था).
जैसे ही दूकान वाला सिगरेट हाथ में धराया, ऐसा लगा मानो ओलंपिक का टार्च हाथ में आ गया हो. दांत निपोरते हुए उसको झोला में रखकर मैंने कहा.."ई बरसतवा में सब सब्जीयो वाला भाग गया है...." (थोडा और 'नार्मल' बनाने के लिए)
लौटते समय इतनी जल्दी थी जैसे बच्चे को मेडल मिला हो और माँ को दिखाना हो ..."अम्मा...अम्मा.....ई देखो अम्मा...हमार ईनाम" "अरे हमार बिटवा....."
घर पहुंचे, वहां पहले से नीतू और गुडिया दी पलकें बिछाए हमारा इंतज़ार कर रही थीं. "ले आई??" "और न ता का ..... हम दुन्नो जायेंगे और खाली हाथ आयेंगे" खुद की पीठ थपथपाते हुए! "जल्दी चलो रूम में...हमलोग यहाँ पे पूरा सेट्टिंग कर लिए हैं". रूम में जाते ही धीरे से दरवाजा चटकाया गया, सिगरेट सुलगाया गया, एक सिगरेट में मैं और सीमा, और एक में नीतू दी और गुडिया दी. "अरे जरा स्टाइल से पीयो रे...क्या देहाती टाइप धका-धक् फूंके जा रही हो?" "ओके ओके ...ये लो...". हम छल्ला बनाने का प्रयास भी करते रह गए लेकिन कुछ बना नहीं. मिला जुला कर कुछ भी नहीं कर पाए और ये भी नहीं तय कर पाए की इसमें ऐसा क्या है? सिवाए धुंआ छोड़ने के और फेंफडे जलने के ये करती क्या है? क्या? सुकून...? न भैया...हमें तो वो न मिला. खैर...फूंकने में व्यस्त थे तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, शाम का समय था, सीमा की माँ शाम को दीया दिखाती थीं. अब क्या करें?? पकडे गए तो? क्या कहेंगी? लेकिन इतने मेहनत की कमाई को ऐसे कैसे फेंक दें? वो खटखटाए जा रही थीं, मन मसोस कर हमने सिगरेट बूझा दिया, साड़ी खिड़कियाँ खोल दी. आंटी जी रूम में आयीं, थोडा देर बाद बोलीं...ये रूम में कैसी बदबू है? "बदबू? कहाँ है बदबू?? अरे वो बाहर पानी लगा है ना...वहीँ से होगा" लेकिन तब तक तो वो सारा माजरा समझ चुकी थीं. आंटी बोलीं - "शरीफ घर की लडकियां यही सब करती हैं क्या? ये लाइन पूरी होने से पहले हम चारो वहां से गायब हो चुके थे. मैं और नीतू दी घर की और भागे..सीमा छत वाले कमरे में अपनी किताबें लेके भागी. उसके बाद तीन दिन तक हम उसके घर की और देखा तक नहीं.
तीन दिन बाद फिर वही चौकड़ी...चाय...चुगली और चिरंजीवी...बस सिगरेट नहीं थी. आखिर शरीफ घर की लडकियां ऐसा थोड़े करती हैं?

Wednesday, June 16, 2010

अलबर्ट भईया बने भोजपुरी गवईया

पब्लिक डिमांड पर पेस है .... अलबर्ट भईया का नयका गीत!

Sunday, June 13, 2010

अम्मा, पैसे भेज दिए हैं


''आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं"
"अगर ये खुद कुछ बताएं तो?"
"तो इनकी बातें बहुत ध्यान पूर्वक सुने और उनका ध्यान बांटने की कोशिश करें क्यूंकि आपलोग तो थोड़े देर में यहाँ से चले जायेंगे और इनकी यादें इन्हें जीने नहीं देंगी"

शाम के करीब ७ बजे मैं और अंशुल ऑफिस से भागते भागते उस वृधाश्रम के संचालक से मिलने पहुंचे. अगले इतवार को हमारी पहली विसीट था, हम सभी वृद्ध लोगों को दोपहर का भोजन करवा रहे थे, थोड़ी बहुत उनके काम में उनकी मदद, और उनके साथ मिलकर उनके बगीचे की साफ़ सफाई भी करनी थी. घर से ऑफिस आते जाते मैं रोज़ उस वृधाश्रम को देखती थी, मोटे मोटे लोहे का गेट, ऊँची ऊँची दीवारें....एक दो बार कोशिश की अन्दर झाँकने की....विश्वास नहीं होता था की यहाँ कोई रहता भी होगा. मेरी नानी और दादी तो घर पे रहती हैं, हम सबके साथ...फिर इन्हें यहाँ कौन छोड़ सकता है? मैं तो आज भी छोटे बच्चों की तरह उनके आँचल में छुप जाती हूँ और वो आज भी मुझे गले लगा लेती हैं फिर कोई उनकी ममता से कैसे दूर रह सकता है? कुछ ऐसे ही सवाल अंशुल के मन में थे, हमने हिम्मत की, और जा पहुंचे 'आशीर्वाद' आश्रम. लेकिन ये कैसा अपवाद है? नाम है 'आशीर्वाद' लेकिन उन्हें लेने वाला कौन है यहाँ? कहाँ हैं वो अभागे लोग?

इतवार सुबह ८:३० बजे आश्रम पहुँचने का समय तय हुआ. हम ५ मित्र वहां पहुंचे, व्यवस्थापक महोदय हमें उस बड़े घर के बड़े बरामदे में लेकर गए. फिर किसी को आवाज़ लगायी, बाहर एक बूढ़े बाबा निकले. कुरता पजामा, आँखों पे चश्मा, हमें देख कर कहा - "अच्छा....आप ही हमारे लिए आये हैं...बहुत धन्यवाद" हम सबने ने एक दूसरे का चेहरा देखा, फिर उनके पीछे हो लिए. बाबा हमें बगीचे में लेकर गए और बताया की क्या क्या करना है, फिर सब्जियों का खेत भी दिखाया, वहाँ भी कुछ काम था. हम सब चुप चाप क्यारियों को साफ़ करने में लग गए. धीरे धीरे करके काफी सारे बुज़ुर्ग बाहर निकल कर हमें देख रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे. पता नहीं क्या बात कर रहे थे...मैंने कोशिश नहीं की सुनने की. ११ बजे के आस पास बगीचे वाला काम ख़तम करके रसोई में पहुंचे. हमने चूकी भोजन प्रायोजित किया था इसलिए वहां का रसोइया ही खाना बना रहा था, हम बस थोड़ी बहुत उसकी मदद कर रहे थे. भोजन का समय हुआ, धीरे धीरे सभी लोग हॉल में आ गए, "अम्मा को ले आओ कोई", किसी ने कहा, बूढी 'अम्मा' किसी का सहारा लेकर हॉल में आ रही थीं. सफ़ेद और छोटे छोटे नीले छींट वाली सूती साडी, पूरे चेहरे पर झुर्रियां, गले में तुलसी जी की माला...ये तो बिलकुल मेरी नानी जैसी दिखती हैं. 'अम्मा' आकर एक कुर्सी पर बैठीं, उनको नीचे बैठने में दिक्कत होती थी, पीठ झुक चूकी थी. मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छू लिए, उन्होंने सर पे हाथ रख दिया. लेकिन ये क्या? ये स्पर्श भी बिलकुल मेरी नानी और दादी जैसा है. फिर किसी ने उनसे कहा "आज ये बच्चे आये हैं हमारे लिए". 'अम्मा' कुछ नहीं बोलीं. हम सबने भोजन परोसना शुरू किया, थोडा बहुत हंसी का दौर चला. अच्छा लगा देख कर. सभी आपस में एक परिवार की तरह रह रहे थे, कितनी देखभाल करते हैं सब एक दूसरे की, इतना प्यार...

खाने के बाद मैं 'अम्मा' को पकड़कर बाहर बगीचे में ले गयी, नेपथ्य में ये भी रील चल रही थी - "आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं".
'अम्मा' मुझसे मेरे बारे में पूछने लगीं, परिवार के बारे में बताते बताते अचानक से से मैं बोल पड़ी -"आप मेरी नानी और दादी जैसी दिखती हैं", कुछ गलत तो नहीं बोल दिया मैंने?
उन्होंने पूछा, "तुम्हारी नानी अपने घर पर रहती हैं?", "जी", "मामा मामी के साथ?", "जी". 'अम्मा' चुप हो गयीं और मैं भी. मैं इधर उधर देखने लगी, फूलों की बातें करने लगी. कोने से देखा तो 'अम्मा' अपने आँचल से अपनी आँखें पोंछ रही थीं और कहा "अजय भी फोने करता है" "अम्मा, पैसे भेज दिए हैं", मैंने अनसुना कर दिया और क्यारियों में कुछ खोदने लगी.

Sunday, June 6, 2010

लघुशंका की शंका


बचपन में टी वी पे जो भी देखती थी, वो बनना चाहती थी. पाइलट से लेकर जासूस तक! कई बार तो मैं खुद ही मम्मी की चीज़ें छुपा कर जासूस बन के उन्हें खोजा करती थी. खेल कूद में बचपन से बहुत रूचि रही है. नानाजी और मामा, दोनों ही राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके थे, इसलिए मेरे मन में भी कुछ कर दिखने की इच्छा थी. क्रिकेट, बैडमिन्टन, कैरम इत्यादी का हमारे घर में वर्चस्व था लेकिन मुझे तैराकी बहुत अच्छी लगती थी. मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण खेल कूद को मैं अपना कैरियर नहीं बना सकती थी, सिर्फ पढाई लिखाई ही मेरी संगिनी बन के रह गयीं. मम्मी पापा ने कहा "वो सब करके मैं कर करुँगी??"

विदेश आते ही बचपन की वो सारी इच्छाएं कुलबुलाने लगीं, टेनिस क्लास में नाम लिखवाया...स्कींग सीखने गयी..डांस क्लास गयी और स्वीमिंग लेसन में भी नाम लिखवाया. स्वीमिंग क्लास अभी भी चल रही है, पर अभी बहुत अच्छे से तैरना नहीं आया है.

स्वीमिंग की पहली क्लास में हमें कुछ नियम बताये गए. पहला नियम है सार्वजनिक पूल में जाने से पहले और आने के बाद नहाना. लेकिन बहुत कम ही लोग इसका पालन करते हैं. कुछ लोग तो नहाने के लिए पूल में चले जाते हैं हैं. मैंने अपने अपार्टमेन्ट के पूल में बहुत सारे ऐसे लोग देखे हैं जो लगता है कई दिनों से नहीं नहाये हैं. खैर...वहां तक तो आप क्लोरिन के भरोसे बर्दाश्त भी कर लें लेकिन एक आंकड़े के अनुसार २५% लोग पूल में लघु शंका करते हैं, इसका क्या करें???? हर जगह साफ़ सुथरे प्रसाधन कक्ष बने रहने के बावजूद लोग ऐसा क्यूँ करते हैं ये मेरी समझ से बाहर है. लेकिन इतना सब जानने के बाद मेरी हिम्मत नहीं होती पब्लिक पूल में जाने की. और भी ना जाने क्या क्या दिमाग में आता है...अमेरिकंस तो टीशू पेपर.... खैर छोडिये ....

एक अनुसंधान के अनुसार ऐसा करने वाले लोग दो प्रकार के होते हैं, एक तो वो जिन्हें ऐसे करने से मज़ा आता है(मुझे भी नहीं पता की क्या मज़ा मिलता है), और दूसरे वो जो अपने ब्लाडर की संचालन क्षमता खो चुके हैं. इस ग्रूप के लिए बनाया गया है पानी वाला डाइपर, वाटर प्रूफ डाइपर. पहनिए और काम पर चलिए. और पहली जमात के लोगों के इलाज के लिए बनाया गया है एक प्रकार का केमिकल, जो पूल में "यूरिक एसिड" को प्रकट कर देता है, तो अगर कोई महोदय/महोदया अपना काम कर रहे हैं, ये केमिकल तुरंत "यूरिक एसिड" को लाल कर देता है. और पकडे जानेपर भारी जुर्माना भरना पड़ता है. लेकिन ऐसे लोग तो वहां पकडे जायेंगे जहाँ ये केमिकल होगा, उस पूल का क्या जहाँ सभी भेंडिया धसान मचाये रहते हैं?

क्या कहा? पूल से दूर रहूँ?? हाँ, लगता तो यही है, इस लघुशंका की शंका ने घृणित कर दिया है.

Wednesday, June 2, 2010

डेबी की डेस्क




डेबी मेरे साथ आई बी एम् में काम करती थीं. वो पिछले १३ साल से आई बी एम् से जुडी हुई थीं, कल उनका विदाई समारोह था. दो वर्ष पहले वो फ्लोरिडा से कोलोराडो ऑन-साईट काम करने के लिए स्थान्तरित हुई थीं. फ्लोरिडा वाला घर बेचा, बच्चों से दूर हुयीं, पोते-पोती और नाती-नातिन से भरा पूरा परिवार छोड़ कर अकेले यहाँ आयीं. अकेले इसलिए क्यूंकि तलाक हो चुका है. यहाँ आकार फिर से नए सिरे से शुरुवात की ही थी की उनके जाने की घोषणा कर दी गयी. डेबी के हिस्से का काम इंडिया आउट सोर्स कर दिया गया.

पिछले हफ्ते सुबह ९ बजे वाली टीम हडल में घोषणा की गयी की डेबी अब हमारे साथ नहीं रहेंगी क्यूंकि उनका काम इंडिया भेजा जा रहा है. अपनी टीम में मैं अकेली भारतीय हूँ. बाकी सब अमेरिकन. ये खबर सुन के समझ में नहीं आया की मैं अपने देश की उन्नति पर खुश होऊं या अपनी मित्र के जाने पर दुःख जताऊँ. कर्म भूमि तो यहीं है न!

किसी ने मुझसे पूछा की मुझे कैसा लगता अगर मेरा काम किसी और को दे दिया जाता और मेरे लिए दो जून की रोटी जुटानी मुश्किल हो जाती? बहुत ज्वलनशील प्रश्न था लेकिन मैंने कहा की मुझे भी उतना ही दुःख होता लेकिन वैश्वीकरण के दौर में हर कोई होड में आगे निकलना चाहता है.

मुझे आज सुबह उनकी डेस्क पे शिफ्ट होने के लिए बोला गया, शिफ्ट हो गयी लेकिन किसी काम में मन नहीं लग रहा था. सोचती रही की इस कठिन समय में कैसे निर्वाह होगा? एक दो बार फोन भी मिलाने की हिम्मत जुटाई लेकिन शायद कम थी. क्या पूछती? सहानुभूति जताती तो वो भी व्यंग लगती, भारतीय हूँ न! . शायद अगले महीने फोन करूँ.... पता नहीं.....


** ये पोस्ट मैं डेबी के डेस्क पे ही बैठ के लिख रही हूँ!

Thursday, May 27, 2010

अलबर्ट बोले भोजपुरी

मेरे मित्र अलबर्ट, जो भोजपुरी बोलने का प्रयास कर रहे हैं!




यहाँ वो कह रहे हैं - "हमार नाम अलबर्ट हा, हम स्तुति के जोरे काम करी ला"

Sunday, May 23, 2010

मीटर लोड


आजकल मेरे पिताजी बहुत परेशान हैं! घर में बिजली के मीटर का कुछ तो झमेला है, जिसके चक्कर में कई बार बिजली ऑफिस के चक्कर काट चुके हैं. कहते हैं - 'इ ससुरा सब खाली लूटने खसोटने का काम लगवले है'

बिजली ऑफिस से पिछले ही हफ्ते कोई घर पे मीटर का लोड निरीक्षण करने आने वाला था, बस फिर क्या था? इतना ही काफी था पापा का घर को सर पे उठाने के लिए. रसोईघर से माइक्रोवेव, टोस्टर, जूसर इत्यादी सब बंक बेड में डाल दिए गए. लिविंग रूम में से म्यूजिक सिस्टम का वूफर तक अंदर रख दिया. खैर...चलिए यहाँ तक तो ठीक है लेकिन कमरों में जो ऐ.सी लगा हुआ है उसका क्या किया जाए??? लेकिन मेरे पिताजी के पास उसका भी हल था, उन्होंने उनके सामने अपनी लूंगी और धोती टांग दी! उद्देश्य मात्र इतना था की बिजली विभाग के अफसर की बुरी नज़र उन बिजली खपाऊ उपकरणों पे न पड़ जाएँ नहीं तो बिना वजह के.वी लोड बढ़ा देंगे घर का. फलस्वरूप आपको एक स्थायी राशि(जो की तत्कालीन राशि से कहीं ज्यादा है) अपने बिजली बिल के साथ देनी पड़ेगी जो मेरे पिताजी को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं था. अब इतनी स्टेजिंग के बाद तो अच्छे अच्छों के छक्के छूट जाएँ फिर वो अफसर ही क्या था. निरीक्षण में अनुकूल परिणाम मिलने के बाद पिताजी ने कहा - भैईल बियाह मोर करब का!!

Friday, May 14, 2010

समीर लाल & अनूप शुक्ल



क्या आप भी मेरी तरह फ़ालतू ब्लोगर हैं? अपने ब्लॉग पे ट्राफिक कम रहने से परेशान हैं? फालोवर की संख्या बढ़ाना चाहते हैं? ब्लॉग जगत में नाम कमाना चाहते हैं? तो घबराईये नहीं...हमारी परचार गाडी के निकट आ जाईये और आप भी लिख डालिए समीर लाल और अनूप शुक्ल का नाम अपने टाइटल में!

जी हाँ साहेबान, कदरदान (जो भी गिनती के हैं)!

इस जंग में हम सब की तो जैसे निकल पड़ी है! अगर ब्लॉग पे टिपण्णी बढ्वानी हो या "फालोवर" की संख्या, बस, ले डालिए ये दो नाम और फिर देखिये, बिलकुल राम बाण का काम करेगी, फुल गारंटी नहीं तो मेम्बरशिप वापस! इस विषय के चलते सब की ऐसी निकल पड़ी है जैसे मेले में चाट वालों की जहाँ सब सडा-गला चलता है और लोग उंगलियाँ चाट चाट के खाते हैं! आईये....आप भी बेचिए...मैं भी बेचूं ..हम सब मिलकर बेचें ...और अपने अपने ठेले का नाम पापुलर करें! मैं यहाँ किसी का पक्ष लेने नहीं आई, ना ही इसमें कोई दिलचस्पी है....दिलचस्पी तो है....हें हें ...समझ ही रहे हैं आप!

फर्जी टाइटल के लिए क्षमा ....पता था, आप टिपियईबे करेंगे! :) हाँ हाँ मैं हूँ अवसरवादी ब्लॉगर!!

दिल की बात सुने दिलवाला...सीधी सी बात ना मिर्च मसाला ...
कहके रहेगा कहने वाला...
दिल की बात सुने दिलवाला....

Thursday, May 13, 2010

अतिथि देवो भव!



माइकल और मैं!




आज एक बड़ी मजेदार बात हुई ऑफिस में! मेरे मित्र, माइकल टॉय, अपनी धर्मपत्नी, नीसीस, के जन्मदिन के उपलक्ष में मुझे न्योता दे रहे थे, उस सम्बन्ध में हमारे बीचहुई ये वार्तालाप पढ़िए -

माइकल - स्तुति, क्या तुम्हे ईमेल पे न्योता मिल गया?
स्तुति - हाँ, माइक, मिल गया, धन्यवाद!
माइकल- तुम आ रही हो ना?
स्तुति- हाँ, ज़रूर :)
माइकल- अपने कुछ मनपसंद कलाकारों के गीतों की सी डी भी ला सकती हो
स्तुति - अच्छा! बॉलीवुड चलेगा?
माइकल- हाँ, बिलकुल
माइकल - क्या तुम मदिरा सेवन करती हो?
स्तुति - नहीं
माइकल - फिर भी पार्टी के लिए लेकर आना
स्तुति - ठीक है * (संकोच के साथ)
स्तुति - लेकिन तुम्हे मुझे नाम इत्यादी बताने होंगे
माइकल - हाँ, वहां बहुत सारे लोग होंगे
माइकल - वोदका ले आना
स्तुति - किस ब्रांड की? और कहाँ मिलेगी?
माइकल - स्काई ब्रांड की....किसी भी लिकर स्टोर में मिल जाएगी
स्तुति - कितनी बोतल ?
माइकल - एक
स्तुति - और कुछ ?
माइकल - अगर मन हो तो मेरी पत्नी के लिए कोई उपहार ...और हाँ....कोई भारतीय स्नैक हो तो मज़ा आ जायेगा!
स्तुति - ज़रूर ज़रूर!

कितना अंतर है ना ... शुरुआत में अजीब सा लगा....फिर सोचा की इनकी सभ्यता में कहाँ है - 'अथिथि देवो भव' , वो बात अलग है की आजकल 'अतिथि तुम कब जाओगे' जैसी पिक्चरें भी बन रही है! :-)

Tuesday, May 11, 2010

सोफ्ट ड्रिंक



मेरे ऑफिस में मिलने वाला कोल्ड ड्रिंक का ग्लास और पानी का ग्लास. देखते ही रामदेव बाबा की बात याद आ जाती है (कोल्ड ड्रिंक से संभंधित)

Monday, May 3, 2010

बम स्क्वाड



शनिवार को ऐसे ही टी.वी का चैनल बदल रही थी, देखा की न्यू योर्क शहर के टाईम्स स्कवैर पे एक कार में कुछ विस्फोटक सामग्री पायी गयी और देखते देखते पुरे इलाके को खाली करवा दिया गया! यहाँ के बम-स्क्वाड को देखा तो अपने इंडिया के बम-स्क्वाड की याद आ गयी! अभी हाल में ही दिल्ली में मिले रेडियो-एक्टिव वस्तुओं की जांच कर रही टीम को देखा था, कैसुअल कपड़ों में, पैर और हाथ में कुछ लपेटा हुआ था और एक लकड़ी से किसी ढेर को हूर रहे थे!

Friday, April 23, 2010

सीट लम्मर 24



मेरे बड़े मामा और मामी जो विगत कई वर्षों से विदेश में रह रहे हैं, पिछले वर्ष एक विवाह में सम्मिलित होने आरा (आरा भोजपुर जिला का एक छोटा सा शहर हैं)आये! मई का महीना था और बिजली की दुर्दशा तो आप सब जानते ही हैं! किसी ने आईडिया दिया की दुपहरिया सिनेमा हॉल में निकली जाए (ऐ.सी का लालच था) अतः घर में काम करने वाले लड़के को टिकेट का इंतज़ाम करने भेजा गया! खबर आई की टिकट मिल गया है, आ जाईये! मामा और मामी चल दिए लेकिन जब वहां पहुंचा तो भौंचक्के रह गए! क्या देखा - लोग चटाई, मचिया, फोल्डिंग वाली कुर्सी, हाथ वाला पंखा, एक दो के हाथ में तो टेबुल फैन भी और लगभग सभी के पास कछुआ छाप की अगर्बात्ति भी थी. मामाजी ने पूछा की भाई..ये सब क्या है? तो पता चला की हॉल के अन्दर मछ्छर बहुत हैं ना, इसलिए, नहीं तो आप सिनेमा देखने से ज्यादा, ताली बजाते हुए पाए जायेंगे! अन्दर का नज़ारा तो और भी अद्भुत था! लोग नीचे चटाई बिछा के बैठे हैं, कोई अपनी फोल्डिंग कुर्सी लगा के बैठा है, किसी की सीट के सामने टेबल फैन भी लगा हुआ है, जिसकी जितनी लम्बी चादर, वैसी व्यवस्था! सोच के आये थे की गर्मी में कम से कम तीन घंटे तो AC में कटेंगे, यहाँ तो पंखे भी ऐसे दोल रहे हों जैसे डैरिया हो गया है! सिनेमा का समय हो चला था, लेकिन इन्हें तेईस तो मिल गया, चौबीस नहीं मिल रही थी. हॉल की किसी कर्मचारी को बुला के पुछा की भैया...चौबीस नंबर किधर है? उसने कहा - "अरे कहियो बईठ जाएये न..का फरक पड़ता है", लेकिन मामाजी की आदत थोड़ी ख़राब हो चुकी थी, कहने लगे की सिनेमा के बीच में अगर किसी ने उठा दिया तब क्या करेंगे? इसपर उस कर्मचारी झुंझला कर पूछा - "केतना लम्मर चाहिए?", "चौबीस", उसने अपने झोले से चौबीस लम्मर का प्लेट निकला और पेंचकस से कास दिया बगल वाली सीट के ऊपर और हाथ झाड कर चल दिया!

Tuesday, April 20, 2010

गौरी


ई है मेरी बछिया "गौरी"! गौरी अभी कुछ महीने की है! इस बार के गाँव विसीट में इनसे मेरा परिचय करवाया गया!




बछिया ने गागल्स लगाया है, कितनी क्यूट लग रही है!

Tuesday, April 13, 2010

तुलसी जी


दो दिन पहले मैंने घर पे तुलसी जी का पौधा लगाया! बहुत दिन से इच्छा थी, लेकिन कोलोराडो के क्रूर जलवायु के कारन लगाने से डरती थी!

देखिये... आज तो प्रसन्न दिख रही हैं!



तुलसी जी के पौधे से बचपन से एक लगाव सा रहा है! नानी का घर बहुत बड़ा था, बड़ा सा आँगन और आँगन के एक कोने में एक चबूतरे पे नानी ने तुलसी जी का पौधा लगाया था और उनकी जड़ों के पास एक शिवलिंग की स्थपाना की थी जिसकी वो नियम से पूजा करती थीं! और नानी हमेशा तुलसी पौधे की विशेषता बताती थी! तुलसी जी का विवाह भी बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था.

Saturday, April 10, 2010

अमरेस चाचा




मेरे पिताजी सदैव किसी की भी मदद के लिए हाजिर रहते हैं, चाहे वो अखबार देने वाला हो, या घर पे गैस सिलिंडर पहुचाने वाला! पिताजी साल में दो-तीन बार गाँव का चक्कर जरुर लगते हैं...खेत-खलिहान, बगइचा, मालगुजारी इत्यादी के सिलसिले में! और जब भी वो घर जाते हैं, वहां से कुछ न कुछ जरुर लाते हैं, इस बार लाये अमरेस चाचा को! चाचाजी हमारे पडोसी हैं और उनकी आर्थिक हालत ठीक नहीं चल रही थी...वो गाँव से निकल कर ' दिल्ली' में कुछ रोजी रोटी का जुगाड़ देखना चाहते थे! उनका कहना है की नन्ह्बूटन और मेलुआ पाहिले अकेलिही गया, लेकिन अब तो सौंसे परिवार को वहां ले गया, जब गांवे आता है तो सब पे चमका के जाता है! पिताजी के समझाने के बावजूद वो दिल्ली में भाग्य आजमाना चाहते थे सो चले आये! पिताजी ने उनके दिल्ली जाने का बंदोबस्त किया, और किसी परिचित की सिक्यूरिटी एजेंसी में गार्ड की नौकरी की बात कर ली! अमरेस चाचा ख़ुशी ख़ुशी दिल्ली चल दिए!

जिनकी सीकुरिटी एजेंसी थी, वो पिताजी के पुराने मित्र थे, पिताजी ने समझा दिया की भाई, टटका-टटका गाँव से निकला है...थोडा नरम रहना! चच्चा पहुँच गए "Gladiator Security Agency" जी हाँ, सही पढ़ा आपने! पहले तीन-चार हफ्ते शायद ट्रेनिंग चलती है, ट्रेनिंग में उनको अंग्रेजी के दो-चार शब्द से परिचय करवाया गया फिर थोडा सा दिल्ली के तौर तरीके से परिचय करवाया गया जैसे की अगर शादी शुदा महिलायें जींस पैंट में दिखें तो उन्हें न घूरें, इत्यादी! चाचा पहली बार गाँव से निकले थे इसलिए उनका पहला असाईनमेंट एक छोटी आवासीय कालोनी में दिया गया! चाचा बहुत उत्साहित थे, शाम हुई, चाचा अपना झोला-झक्कड़, सतुआ पानी लेके अपने कोपचे पे पहुँच गए थे! रात के ११ बजे कालोनी का मेन गेट बंद किया, और आवाज लगायी.... "जागते रsहिएगाssss..."

Saturday, April 3, 2010

मेरी पहली यात्रा



अब जब बात एअरपोर्ट की निकली है और आईये आपको अपनि पहले हवाई यात्रा का अनुभव सुनाती हूँ!

बात २००२ की है. मुझे किसी साक्षात्कार के लिए दिल्ली जाना था. पिताजी ने ट्रेन के टिकट के लिए बहुत प्रयास किये लेकिन विफल रहे! बड़ी मुश्किल से कोई मेरा साक्षात्कार लेने को तैयार था, ये मौका हाथ से न निकल जाए, यह सोच कर मेरी पहली हवाई यात्रा का प्रबंध किया गया! मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना न रहा, जितने सगे सम्बन्धी थे सबको फ़ोन घुमा दिया और जो बच गए थे उनको माताजी ने कवर कर लिया! दो-तीन दिन में टिकट घर पे आ गया,मानो कोई लौटरी की टिकट आ गयी हो. अडोस-पड़ोस सबने देखा, लोगों ने तो फाइन प्रिंट्स तक पढ़ डाले. उसके बाद तो दिन काटे न कटे..जैसे तैसे सफ़र का दिन आया, मैंने अपने मामाजी की शादी में खरीदा हुआ जड़ी-मोती वाला सलवार कुर्ता निकला और डेंटिंग-पेंटिंग करके तैयार हो गयी, परफयूम घर में था नहीं तो भाई ने रूम फ्रेशनर ही मार दिया और हम निकल पड़े एअरपोर्ट की ओर! रास्ते में खबर आई की मेरे ननिहाल वाले भी एअरपोर्ट आ रहे हैं मुझे विदा करने, मौसी भी अपने तीनो बच्चों को लेकर पहुंची हुई थीं! अन्दर जाने से पहले मैंने सबके पैर छुए, नानी ने ११ रुपये दिए "मिठाई खाने के लिए"! सबसे विदाई लेके मैं जैसे ही काउंटर पे पहुंची, एयर लाइन स्टाफ ने मेरा टिकेट देखा और मुझसे पूछा "मैम, विंडो और आएल?" मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया, ये क्या बोल रहा है वो? सिर्फ विंडो समझ में आया और आएल का मतलब पता था नहीं, मैंने तुरंत कहा, "इकोनोमी क्लास का जो भी हो, दे दीजिये" वो मुस्कुराया और शायद मेरी भेष-भूसा और जवाब से उसे अंदाजा लग गया की मैं पहली बार सफ़र कर रही हूँ. उसने मुझे विंडो सीट दिया. बोर्डिंग पास लेके मैं लाऊंज में पहुंची तो क्या देखा - कोई बरमूडा में है तो कोई हवाई चप्पल में. मैंने सोचा कितने फूहड़ लोग हैं, प्लेन से जाने की तमीज भी नहीं है. एक जनाब ने तो बेहूदगी की हद्द पार कर दी थी, बरमुडा बनियान उसपे काला चश्मा और कान में वाक् मन और थिरक रहे थे माइकल जैक्सन की तरह. मैंने मन ही मन कहा की इनको भी अपना खचड़पन दिखने के लिए यही जगह मिली थी? खैर...किसी तरह प्लेन पे चढ़ी और पलक झपकते ही मैं आसमान में थी! कुछ ही देर में दिल्ली उतरने की घोषणा हो गयी, दिल्ली पहुंची, वहां मुझे लेने के लिए मेरे एक मामाजी आये थे, जो ऐसे तो रेलवे स्टेशन के नाम पे कभी नहीं आये, लेकिन एयरपोर्ट पर वो धौंस ज़माने के लिए अपने दो-तीन दोस्तों को लेकर आये! सिक्यूरिटी चेक के दौरान मेरे पर्से से एक टैग लटका दिया गया था, जिसे लेके मैं दिल्ली की बसों में भी घुमती रही! हाय ... क्या दिन थे वो!!

Friday, April 2, 2010

आम आदमी की सवारी!

पहला ब्लॉग लिख रही हूँ...प्रोत्साहन के लिए अडवांस में धन्यवाद!

पिछले कुछ दिनों पहले मैं पटना गई! एअरपोर्ट से बहार निकलते ही देखा की कुछ लोग फूल-माला लेकर अपने "प्रिय" नेता का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं और इस से पहले की मैं कुछ और सोच पाती, अचानक मेरे कान के पास कोई चिल्लाया -"झूमे धरती आसमान - राम विलास पासवान" हमारे "प्रिय" नेताजी दांत चियारते हुए बाहर निकले और सीधे अपनी वातानुकूलित कार में जा बैठे। उनको लेने के लिए फटफटिया का एक दल भी पहुँच था और साथ में एक जीप पे दो-चार लाठिबाज भी थे. देख के यकीन हो गया की मैं पटना में ही हूँ.

एअरपोर्ट पर मुझे लेने के लिए मेरे पिताजी की पुश्तैनी मारुती ८०० आई थी जिसमे लोग सवार थे, जिसमे से लोग पीछे वाली सीट पे "अडजस्ट" हुए थे, आगे साइड वाली सीट पे लोग और ड्राईवर खुशकिस्मत था की उसकी सीट पे और कोई "अडजस्ट" नहीं हुआ। किसी तरह ठूंस-ठांस के हम सब बैठ गए और जब ड्राईवर ने मेरा सामान किसी तरह बूट में रखा और गाड़ी आगे बढाने कि कोशिश कि तो गाडी ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। कुछ राहगीरों से धक्का देने को अनुरोध किया गया तो वो घूरने लगे क्यूंकि हमारी पूरी गाडी लदी हुई थी और हम में से कोई भी बहार निकलने को तैयार नहीं था। अरे भाई...निकलते तो हमारा "अडजस्टमेंट" बिगड़ नहीं जाता? खैर...किसी तरह गाडी ने रेंगना शुरू किया लेकिन दम तोड़ दिया। अब ये तय हुआ की हम में से कुछ लोग रिक्शा से घर जायेंगे। मैंने तय किया की मैं रिक्शे से घर जाउंगी क्यूंकि विदेश में रहके रिक्शे की कमी बहुत महसूस हुई। दूर से एक रिक्शे वाला ये सब तमाशा देख रहा थे, मौका पाते ही वो हनहनाता हुआ अपना रिक्शा लेकर हमारी टुटही कार के सामने गया। पटना के छिह्होरे रिक्शे वालों कि हरकतों भली भाँती परिचित होते हुए पिताजी ने पहले मोल-भाव करना ठीक समझा। रिक्शे वाले ने ३५ रुपये मांगे, पिताजी ने गुर्राते हुए रिक्शे वाले से कहा कि वो क्या हवाई जहाज से ले जायेगा जो इतने पैसे मांग रहा है? इस पर रिक्शे वाले ने अपने लीचड़ पन को सही साबित करते हुए तपाक से कहा - तो अपनी ही हवाई जहाज से चले जाएये। झेंप कर मैं किसी तरह गाडी के बाहर निकली और सवार हो गयी अपनी प्रिय सवारी पे और हम निकल पड़े घर की ओर।