Friday, April 23, 2010

सीट लम्मर 24



मेरे बड़े मामा और मामी जो विगत कई वर्षों से विदेश में रह रहे हैं, पिछले वर्ष एक विवाह में सम्मिलित होने आरा (आरा भोजपुर जिला का एक छोटा सा शहर हैं)आये! मई का महीना था और बिजली की दुर्दशा तो आप सब जानते ही हैं! किसी ने आईडिया दिया की दुपहरिया सिनेमा हॉल में निकली जाए (ऐ.सी का लालच था) अतः घर में काम करने वाले लड़के को टिकेट का इंतज़ाम करने भेजा गया! खबर आई की टिकट मिल गया है, आ जाईये! मामा और मामी चल दिए लेकिन जब वहां पहुंचा तो भौंचक्के रह गए! क्या देखा - लोग चटाई, मचिया, फोल्डिंग वाली कुर्सी, हाथ वाला पंखा, एक दो के हाथ में तो टेबुल फैन भी और लगभग सभी के पास कछुआ छाप की अगर्बात्ति भी थी. मामाजी ने पूछा की भाई..ये सब क्या है? तो पता चला की हॉल के अन्दर मछ्छर बहुत हैं ना, इसलिए, नहीं तो आप सिनेमा देखने से ज्यादा, ताली बजाते हुए पाए जायेंगे! अन्दर का नज़ारा तो और भी अद्भुत था! लोग नीचे चटाई बिछा के बैठे हैं, कोई अपनी फोल्डिंग कुर्सी लगा के बैठा है, किसी की सीट के सामने टेबल फैन भी लगा हुआ है, जिसकी जितनी लम्बी चादर, वैसी व्यवस्था! सोच के आये थे की गर्मी में कम से कम तीन घंटे तो AC में कटेंगे, यहाँ तो पंखे भी ऐसे दोल रहे हों जैसे डैरिया हो गया है! सिनेमा का समय हो चला था, लेकिन इन्हें तेईस तो मिल गया, चौबीस नहीं मिल रही थी. हॉल की किसी कर्मचारी को बुला के पुछा की भैया...चौबीस नंबर किधर है? उसने कहा - "अरे कहियो बईठ जाएये न..का फरक पड़ता है", लेकिन मामाजी की आदत थोड़ी ख़राब हो चुकी थी, कहने लगे की सिनेमा के बीच में अगर किसी ने उठा दिया तब क्या करेंगे? इसपर उस कर्मचारी झुंझला कर पूछा - "केतना लम्मर चाहिए?", "चौबीस", उसने अपने झोले से चौबीस लम्मर का प्लेट निकला और पेंचकस से कास दिया बगल वाली सीट के ऊपर और हाथ झाड कर चल दिया!

Tuesday, April 20, 2010

गौरी


ई है मेरी बछिया "गौरी"! गौरी अभी कुछ महीने की है! इस बार के गाँव विसीट में इनसे मेरा परिचय करवाया गया!




बछिया ने गागल्स लगाया है, कितनी क्यूट लग रही है!

Tuesday, April 13, 2010

तुलसी जी


दो दिन पहले मैंने घर पे तुलसी जी का पौधा लगाया! बहुत दिन से इच्छा थी, लेकिन कोलोराडो के क्रूर जलवायु के कारन लगाने से डरती थी!

देखिये... आज तो प्रसन्न दिख रही हैं!



तुलसी जी के पौधे से बचपन से एक लगाव सा रहा है! नानी का घर बहुत बड़ा था, बड़ा सा आँगन और आँगन के एक कोने में एक चबूतरे पे नानी ने तुलसी जी का पौधा लगाया था और उनकी जड़ों के पास एक शिवलिंग की स्थपाना की थी जिसकी वो नियम से पूजा करती थीं! और नानी हमेशा तुलसी पौधे की विशेषता बताती थी! तुलसी जी का विवाह भी बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था.

Saturday, April 10, 2010

अमरेस चाचा




मेरे पिताजी सदैव किसी की भी मदद के लिए हाजिर रहते हैं, चाहे वो अखबार देने वाला हो, या घर पे गैस सिलिंडर पहुचाने वाला! पिताजी साल में दो-तीन बार गाँव का चक्कर जरुर लगते हैं...खेत-खलिहान, बगइचा, मालगुजारी इत्यादी के सिलसिले में! और जब भी वो घर जाते हैं, वहां से कुछ न कुछ जरुर लाते हैं, इस बार लाये अमरेस चाचा को! चाचाजी हमारे पडोसी हैं और उनकी आर्थिक हालत ठीक नहीं चल रही थी...वो गाँव से निकल कर ' दिल्ली' में कुछ रोजी रोटी का जुगाड़ देखना चाहते थे! उनका कहना है की नन्ह्बूटन और मेलुआ पाहिले अकेलिही गया, लेकिन अब तो सौंसे परिवार को वहां ले गया, जब गांवे आता है तो सब पे चमका के जाता है! पिताजी के समझाने के बावजूद वो दिल्ली में भाग्य आजमाना चाहते थे सो चले आये! पिताजी ने उनके दिल्ली जाने का बंदोबस्त किया, और किसी परिचित की सिक्यूरिटी एजेंसी में गार्ड की नौकरी की बात कर ली! अमरेस चाचा ख़ुशी ख़ुशी दिल्ली चल दिए!

जिनकी सीकुरिटी एजेंसी थी, वो पिताजी के पुराने मित्र थे, पिताजी ने समझा दिया की भाई, टटका-टटका गाँव से निकला है...थोडा नरम रहना! चच्चा पहुँच गए "Gladiator Security Agency" जी हाँ, सही पढ़ा आपने! पहले तीन-चार हफ्ते शायद ट्रेनिंग चलती है, ट्रेनिंग में उनको अंग्रेजी के दो-चार शब्द से परिचय करवाया गया फिर थोडा सा दिल्ली के तौर तरीके से परिचय करवाया गया जैसे की अगर शादी शुदा महिलायें जींस पैंट में दिखें तो उन्हें न घूरें, इत्यादी! चाचा पहली बार गाँव से निकले थे इसलिए उनका पहला असाईनमेंट एक छोटी आवासीय कालोनी में दिया गया! चाचा बहुत उत्साहित थे, शाम हुई, चाचा अपना झोला-झक्कड़, सतुआ पानी लेके अपने कोपचे पे पहुँच गए थे! रात के ११ बजे कालोनी का मेन गेट बंद किया, और आवाज लगायी.... "जागते रsहिएगाssss..."

Saturday, April 3, 2010

मेरी पहली यात्रा



अब जब बात एअरपोर्ट की निकली है और आईये आपको अपनि पहले हवाई यात्रा का अनुभव सुनाती हूँ!

बात २००२ की है. मुझे किसी साक्षात्कार के लिए दिल्ली जाना था. पिताजी ने ट्रेन के टिकट के लिए बहुत प्रयास किये लेकिन विफल रहे! बड़ी मुश्किल से कोई मेरा साक्षात्कार लेने को तैयार था, ये मौका हाथ से न निकल जाए, यह सोच कर मेरी पहली हवाई यात्रा का प्रबंध किया गया! मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना न रहा, जितने सगे सम्बन्धी थे सबको फ़ोन घुमा दिया और जो बच गए थे उनको माताजी ने कवर कर लिया! दो-तीन दिन में टिकट घर पे आ गया,मानो कोई लौटरी की टिकट आ गयी हो. अडोस-पड़ोस सबने देखा, लोगों ने तो फाइन प्रिंट्स तक पढ़ डाले. उसके बाद तो दिन काटे न कटे..जैसे तैसे सफ़र का दिन आया, मैंने अपने मामाजी की शादी में खरीदा हुआ जड़ी-मोती वाला सलवार कुर्ता निकला और डेंटिंग-पेंटिंग करके तैयार हो गयी, परफयूम घर में था नहीं तो भाई ने रूम फ्रेशनर ही मार दिया और हम निकल पड़े एअरपोर्ट की ओर! रास्ते में खबर आई की मेरे ननिहाल वाले भी एअरपोर्ट आ रहे हैं मुझे विदा करने, मौसी भी अपने तीनो बच्चों को लेकर पहुंची हुई थीं! अन्दर जाने से पहले मैंने सबके पैर छुए, नानी ने ११ रुपये दिए "मिठाई खाने के लिए"! सबसे विदाई लेके मैं जैसे ही काउंटर पे पहुंची, एयर लाइन स्टाफ ने मेरा टिकेट देखा और मुझसे पूछा "मैम, विंडो और आएल?" मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया, ये क्या बोल रहा है वो? सिर्फ विंडो समझ में आया और आएल का मतलब पता था नहीं, मैंने तुरंत कहा, "इकोनोमी क्लास का जो भी हो, दे दीजिये" वो मुस्कुराया और शायद मेरी भेष-भूसा और जवाब से उसे अंदाजा लग गया की मैं पहली बार सफ़र कर रही हूँ. उसने मुझे विंडो सीट दिया. बोर्डिंग पास लेके मैं लाऊंज में पहुंची तो क्या देखा - कोई बरमूडा में है तो कोई हवाई चप्पल में. मैंने सोचा कितने फूहड़ लोग हैं, प्लेन से जाने की तमीज भी नहीं है. एक जनाब ने तो बेहूदगी की हद्द पार कर दी थी, बरमुडा बनियान उसपे काला चश्मा और कान में वाक् मन और थिरक रहे थे माइकल जैक्सन की तरह. मैंने मन ही मन कहा की इनको भी अपना खचड़पन दिखने के लिए यही जगह मिली थी? खैर...किसी तरह प्लेन पे चढ़ी और पलक झपकते ही मैं आसमान में थी! कुछ ही देर में दिल्ली उतरने की घोषणा हो गयी, दिल्ली पहुंची, वहां मुझे लेने के लिए मेरे एक मामाजी आये थे, जो ऐसे तो रेलवे स्टेशन के नाम पे कभी नहीं आये, लेकिन एयरपोर्ट पर वो धौंस ज़माने के लिए अपने दो-तीन दोस्तों को लेकर आये! सिक्यूरिटी चेक के दौरान मेरे पर्से से एक टैग लटका दिया गया था, जिसे लेके मैं दिल्ली की बसों में भी घुमती रही! हाय ... क्या दिन थे वो!!

Friday, April 2, 2010

आम आदमी की सवारी!

पहला ब्लॉग लिख रही हूँ...प्रोत्साहन के लिए अडवांस में धन्यवाद!

पिछले कुछ दिनों पहले मैं पटना गई! एअरपोर्ट से बहार निकलते ही देखा की कुछ लोग फूल-माला लेकर अपने "प्रिय" नेता का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं और इस से पहले की मैं कुछ और सोच पाती, अचानक मेरे कान के पास कोई चिल्लाया -"झूमे धरती आसमान - राम विलास पासवान" हमारे "प्रिय" नेताजी दांत चियारते हुए बाहर निकले और सीधे अपनी वातानुकूलित कार में जा बैठे। उनको लेने के लिए फटफटिया का एक दल भी पहुँच था और साथ में एक जीप पे दो-चार लाठिबाज भी थे. देख के यकीन हो गया की मैं पटना में ही हूँ.

एअरपोर्ट पर मुझे लेने के लिए मेरे पिताजी की पुश्तैनी मारुती ८०० आई थी जिसमे लोग सवार थे, जिसमे से लोग पीछे वाली सीट पे "अडजस्ट" हुए थे, आगे साइड वाली सीट पे लोग और ड्राईवर खुशकिस्मत था की उसकी सीट पे और कोई "अडजस्ट" नहीं हुआ। किसी तरह ठूंस-ठांस के हम सब बैठ गए और जब ड्राईवर ने मेरा सामान किसी तरह बूट में रखा और गाड़ी आगे बढाने कि कोशिश कि तो गाडी ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। कुछ राहगीरों से धक्का देने को अनुरोध किया गया तो वो घूरने लगे क्यूंकि हमारी पूरी गाडी लदी हुई थी और हम में से कोई भी बहार निकलने को तैयार नहीं था। अरे भाई...निकलते तो हमारा "अडजस्टमेंट" बिगड़ नहीं जाता? खैर...किसी तरह गाडी ने रेंगना शुरू किया लेकिन दम तोड़ दिया। अब ये तय हुआ की हम में से कुछ लोग रिक्शा से घर जायेंगे। मैंने तय किया की मैं रिक्शे से घर जाउंगी क्यूंकि विदेश में रहके रिक्शे की कमी बहुत महसूस हुई। दूर से एक रिक्शे वाला ये सब तमाशा देख रहा थे, मौका पाते ही वो हनहनाता हुआ अपना रिक्शा लेकर हमारी टुटही कार के सामने गया। पटना के छिह्होरे रिक्शे वालों कि हरकतों भली भाँती परिचित होते हुए पिताजी ने पहले मोल-भाव करना ठीक समझा। रिक्शे वाले ने ३५ रुपये मांगे, पिताजी ने गुर्राते हुए रिक्शे वाले से कहा कि वो क्या हवाई जहाज से ले जायेगा जो इतने पैसे मांग रहा है? इस पर रिक्शे वाले ने अपने लीचड़ पन को सही साबित करते हुए तपाक से कहा - तो अपनी ही हवाई जहाज से चले जाएये। झेंप कर मैं किसी तरह गाडी के बाहर निकली और सवार हो गयी अपनी प्रिय सवारी पे और हम निकल पड़े घर की ओर।