Tuesday, June 29, 2010

वो तीन लोग



कभी कभी आप अनजाने में ऐसा काम कर लेते हैं जो आप जानते हुए सोच भी नहीं सकते. कल कुछ ऐसा ही मुझसे हो गया या यूँ कहिये की मैंने कर दिया. और उस काम की 'महानता' का मुझे आज सुबह की टीम हडल में पता चला.

पिछले हफ्ते घोषणा की गयी थी की सोमवार को हमारे ऑफिस में 'टॉप इक्सेक्यूटीव्स' आने वाले हैं. ऐसी घोषणा का उद्देश्य आपको ये बताना होता है की थोडा तमीज वाले कपडे पहने, अपने डेस्क को साफ़ सुथरा रखें और 'आदमी' नज़र आयें. ऐसी घोषणाएं हमारे सेंटर के लिए बहुत आम बात है, हर महीने कुछ ना कुछ लगा रहता है. मेरे लिए कल का दिन भी वैसा ही था जैसा बाकी दिन होता है; एकदम 'नो बिग डील' जैसा. शाम को काम ख़तम करके, मैं अपने तीसरे माले के लिफ्ट के पास खड़ी थी, वहां तीन लोग और आकर खड़े हो गए. वो तीनो देखने से ही 'टॉप क्लास' वाले लग रहे थे, तो कौन सी बड़ी बात थी. रोज का ही टंटा है ये तो. मैं वहां आराम से हेडफोन लगा कर खड़ी थी. थोड़े देर बाद मैंने उन तीनो से कहा -"ये जो लिफ्ट है ना, ये दुनिया की सबसे धीमी गति से चलने वालों में से एक है, मैं सीढ़ियों से नीचे जा रही हूँ....अगर आप चाहें तो मेरे पीछे चल सकते हैं" वो तीनो लोगों ने मुझे धन्यवाद बोलकर मेरे पीछे हो लिए. सीढ़ियों पर उन्होंने मुझसे इधर उधर की बातें पूछीं, मौसम इत्यादि के बारे में. नीचे उतारकर मैं उन्हें मेन लोंबी तक ले गयी. वहां मैंने कुछ 'सीक्रेट सर्विस' वालों को देखा, थोडा चौंकी...फिर सोचा...होंगे कोई, 'नो बिग डील'.
आज सुबह हडल में बताया गया की कल जो ''टॉप इक्सेक्यूटीव्स'' आये थे, उनमे मौजूद थे - CEO of France Airlines, CEO of Honeywell, CEO of Raytheon, CEO of IBM, CEO of American Express, CEO of Tokyo Stock Exchange ...etc etc. इनके नाम की घोषणा सुरक्षा कारणों से पहले नहीं की गयी.
सुन कर पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी. अभी अभी डेस्क पर लौटकर सर्च किया तो फोटो से पता लगा की 'वो' तीन लोग जिनको मैंने लिफ्ट की खासियत बताई थी, वो थे CEO of American Express, CEO of DOW Chemical और CEO of Boeing.

Thursday, June 24, 2010

सेम टू सेम


आजकल जहाँ देखिये वहीँ अंग्रेजी स्पीकिंग सेंटर खुला हुआ है. बड़े शहरों की बात छोडिये, छोटे गाँव देहात में भी जिसे भी थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है, वही क्लास चलता है. मेरे गाँव पर भी शिवाला पर बिसुनधरवा का बेटा क्लास चलाता है. इस बार देख कर आये, बड़ा बढियां चल रहा है छौंड़ा का बिजनेस.
बालीवुड के साथ साथ हालीवुड का हउवा भी देख ही रहे हैं, स्पाइडर मैन का मकड़ी-बबुआ बन चुका है जिसमे टोबे मैग्वायेर बोल रहे हैं - "हम तोहरा मुआ देब रे राक्छ्स!!!"

हम पिछलग्गू की तरह हर काम कर रहे हैं, उनके जैसा पहिनना चाह रहे हैं, उनके अंदाज में बतियाना चाह रहे हैं, और ये लोग तो ना जाने कब से हमारी ही शैली चुरा कर बड़े कान्फिडेंस के साथ प्रयोग कर रहे हैं. उदहारण के लिए देखिये, अमेरिकन्स जब किसी से मिलते हैं तो कहते हैं "what's up man!!", और हमारे यहाँ बच्चे बूढ़े और जवान, "का हो मर्दे!!!"
दूसरा उदहारण, "Get outta here!!", "चल भाग हियाँ से"
एक और लीजिये, "Are you out of your mind??", "बउरा गईल बाड़े का रे?"
देखा ना, सब नक़ल किया हुआ है. सेम टू सेम. हँ न त!

इसलिए, मैं अंग्रेजी सीखने के लिए लुलुआये लोगों से यहीं कहूँगी की बस ५०% मेहनत कीजिये बाकी शैली तो अपनी है ही!

जा झाड के!

Wednesday, June 23, 2010

आपको यकीन हुआ क्या?

आजकल जिस ब्लॉग पे जाते हैं, वहां ये 'ईंडली' वाले पहिले से ही अपना कमेन्ट डाले रहते हैं -

नमस्ते,

आपका बलोग पढकर अच्चा लगा । आपके चिट्ठों को इंडलि में शामिल करने से अन्य कयी चिट्ठाकारों के सम्पर्क में आने की सम्भावना ज़्यादा हैं । एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा ।


पहले तो इसका मतलब क्या है? जैसे, ब्लोग्वानी और ब्लोग्वार्ता, चिठ्ठा चर्चा इत्यादि तो नाम से ही समझ में आ जाते है, पर ये ईंडली? ई का है भईया?

अपने ब्लॉग पर इनका कमेन्ट देख कर अच्छा लगा था, फिर तो हर किसी के ब्लॉग पर यही कमेन्ट देखने को मिला.
सबसे मजेदार ये वाली लाइन है - "एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा", हो गया बाबा, विशवास हो गया हमलोग को, देखिये हम तो आपका लोगो भी अपने बिलोग पे साट दिए हैं, अब बोलिए.....आगे?

Saturday, June 19, 2010

चार शरीफ लडकियां




निहायत ही शरीफ लोगों का मोहल्ला है मेरा! शरीफ मोहल्ला, शराफत टपकाते हुए लोग और शराफत से लथ-पथ हम चारों.

जुलाई का महिना था, तीन दिन से बरसात हो रही थी, हर जगह पानी भर गया था. शाम के समय, मैं, सीमा(मेरी पकिया सहेली), गुडिया दी(सीमा की दीदी) और नीतू दी(मेरी चचेरी दी). हम चारों शाम होते ही किसी एक के घर पे मिलते थे, थोड़ी बतकही, थोड़ी पड़ोसन की चुगली और थोड़ी बहुत बड़ी बड़ी बातें. उस दिन मेरा आठवीं कक्षा का रिजल्ट निकला था, समोसे लेके मैं और नीतू दी सीमा के घर पहुंचे. खा रहे थे, टी वी देख रहे थे...और बाकी सब बातें तो उसके साथ चलती ही रहती थीं. चुगली इत्यादि.
टी वी पे चिरंजीवी की कोई पिक्चर आ रही थी, . उसमे वो सिगरेट के धुएं को बड़े स्टाइल से उड़ा रहा था, अचानक सीमा ने मुझसे पूछा - "ई सिगरेट पीने में क्या मजा आता होगा रे?" "मुझे क्या पता, मैंने कभी थोड़े पी है". धीरे धीरे इस उत्सुकता ने हम सबमे सिगरेट पीने की लालसा जगा दी. उद्देश्य था मात्र ये देखना की उसमे है क्या? आखिर क्या बात है इसमें? लेकिन सिगरेट आएगा कहाँ से? दूकान से? और लाएगा कौन? बलि का बकरा तो हमें ही बनना था सो बन गए. अब बात आई की इस काम को कैसे अंजाम दें की किसी को हमपर शक ना हो. अरे भाई...आखिर शरीफों का मोहल्ला है, यू नो!
सब जगह पानी लगा हुआ, हम जाएँ कैसे? लेकिन ये साली सिगरेट की तलब जो ना करवाए. घुटने भर पानी में हेलते हुए चल दिए एक झोला और छाता लिए हुए. झोला इस पूरे नाटक तो थोडा 'नार्मल' लुक देने के लिए था. रास्ते भर हम ये बतियाते रहे की उस गुमटी पर बोलना क्या है? उ ससुरा गुमटिया वाला मामाजी को जानता है, कहीं बक दिया तो? पानी हेलते हालते पहुंचे तो गुमटी बंद. अब क्या करें? वापस कैसे चले जाएँ? सरदार क्या कहेगा? खाली हाँथ आये? हम दोनों ने तय किया की पास वाले मार्केट जाकर ले आयेंगे. १.५ की.मी पानी, पांकी में टहलते हुए मार्केट पहुंचे, गुमटी खुली देख के आँखें ऐसी चमकी जैसे चाईनीज टार्च. गुमटी पर पहुंचते ही मैंने कहा ..."दू ठो सिगरेट दे दीजियेगा", "कौन बाला चाहिए?" "अरे सीमा...नानाजी कौन सा सिगरेट बोले थे रे लाने के लिए....??" "सायद विल्स बोले थे" "हाँ हाँ....दू ठो विल्स दे दीजिये" (विल्स इसलिए क्यूंकि टी वी पे बहुत एड देखा था और कुछ 'ऊँचे' लोगों को पीते हुए देखा था).
जैसे ही दूकान वाला सिगरेट हाथ में धराया, ऐसा लगा मानो ओलंपिक का टार्च हाथ में आ गया हो. दांत निपोरते हुए उसको झोला में रखकर मैंने कहा.."ई बरसतवा में सब सब्जीयो वाला भाग गया है...." (थोडा और 'नार्मल' बनाने के लिए)
लौटते समय इतनी जल्दी थी जैसे बच्चे को मेडल मिला हो और माँ को दिखाना हो ..."अम्मा...अम्मा.....ई देखो अम्मा...हमार ईनाम" "अरे हमार बिटवा....."
घर पहुंचे, वहां पहले से नीतू और गुडिया दी पलकें बिछाए हमारा इंतज़ार कर रही थीं. "ले आई??" "और न ता का ..... हम दुन्नो जायेंगे और खाली हाथ आयेंगे" खुद की पीठ थपथपाते हुए! "जल्दी चलो रूम में...हमलोग यहाँ पे पूरा सेट्टिंग कर लिए हैं". रूम में जाते ही धीरे से दरवाजा चटकाया गया, सिगरेट सुलगाया गया, एक सिगरेट में मैं और सीमा, और एक में नीतू दी और गुडिया दी. "अरे जरा स्टाइल से पीयो रे...क्या देहाती टाइप धका-धक् फूंके जा रही हो?" "ओके ओके ...ये लो...". हम छल्ला बनाने का प्रयास भी करते रह गए लेकिन कुछ बना नहीं. मिला जुला कर कुछ भी नहीं कर पाए और ये भी नहीं तय कर पाए की इसमें ऐसा क्या है? सिवाए धुंआ छोड़ने के और फेंफडे जलने के ये करती क्या है? क्या? सुकून...? न भैया...हमें तो वो न मिला. खैर...फूंकने में व्यस्त थे तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, शाम का समय था, सीमा की माँ शाम को दीया दिखाती थीं. अब क्या करें?? पकडे गए तो? क्या कहेंगी? लेकिन इतने मेहनत की कमाई को ऐसे कैसे फेंक दें? वो खटखटाए जा रही थीं, मन मसोस कर हमने सिगरेट बूझा दिया, साड़ी खिड़कियाँ खोल दी. आंटी जी रूम में आयीं, थोडा देर बाद बोलीं...ये रूम में कैसी बदबू है? "बदबू? कहाँ है बदबू?? अरे वो बाहर पानी लगा है ना...वहीँ से होगा" लेकिन तब तक तो वो सारा माजरा समझ चुकी थीं. आंटी बोलीं - "शरीफ घर की लडकियां यही सब करती हैं क्या? ये लाइन पूरी होने से पहले हम चारो वहां से गायब हो चुके थे. मैं और नीतू दी घर की और भागे..सीमा छत वाले कमरे में अपनी किताबें लेके भागी. उसके बाद तीन दिन तक हम उसके घर की और देखा तक नहीं.
तीन दिन बाद फिर वही चौकड़ी...चाय...चुगली और चिरंजीवी...बस सिगरेट नहीं थी. आखिर शरीफ घर की लडकियां ऐसा थोड़े करती हैं?

Wednesday, June 16, 2010

अलबर्ट भईया बने भोजपुरी गवईया

पब्लिक डिमांड पर पेस है .... अलबर्ट भईया का नयका गीत!

Sunday, June 13, 2010

अम्मा, पैसे भेज दिए हैं


''आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं"
"अगर ये खुद कुछ बताएं तो?"
"तो इनकी बातें बहुत ध्यान पूर्वक सुने और उनका ध्यान बांटने की कोशिश करें क्यूंकि आपलोग तो थोड़े देर में यहाँ से चले जायेंगे और इनकी यादें इन्हें जीने नहीं देंगी"

शाम के करीब ७ बजे मैं और अंशुल ऑफिस से भागते भागते उस वृधाश्रम के संचालक से मिलने पहुंचे. अगले इतवार को हमारी पहली विसीट था, हम सभी वृद्ध लोगों को दोपहर का भोजन करवा रहे थे, थोड़ी बहुत उनके काम में उनकी मदद, और उनके साथ मिलकर उनके बगीचे की साफ़ सफाई भी करनी थी. घर से ऑफिस आते जाते मैं रोज़ उस वृधाश्रम को देखती थी, मोटे मोटे लोहे का गेट, ऊँची ऊँची दीवारें....एक दो बार कोशिश की अन्दर झाँकने की....विश्वास नहीं होता था की यहाँ कोई रहता भी होगा. मेरी नानी और दादी तो घर पे रहती हैं, हम सबके साथ...फिर इन्हें यहाँ कौन छोड़ सकता है? मैं तो आज भी छोटे बच्चों की तरह उनके आँचल में छुप जाती हूँ और वो आज भी मुझे गले लगा लेती हैं फिर कोई उनकी ममता से कैसे दूर रह सकता है? कुछ ऐसे ही सवाल अंशुल के मन में थे, हमने हिम्मत की, और जा पहुंचे 'आशीर्वाद' आश्रम. लेकिन ये कैसा अपवाद है? नाम है 'आशीर्वाद' लेकिन उन्हें लेने वाला कौन है यहाँ? कहाँ हैं वो अभागे लोग?

इतवार सुबह ८:३० बजे आश्रम पहुँचने का समय तय हुआ. हम ५ मित्र वहां पहुंचे, व्यवस्थापक महोदय हमें उस बड़े घर के बड़े बरामदे में लेकर गए. फिर किसी को आवाज़ लगायी, बाहर एक बूढ़े बाबा निकले. कुरता पजामा, आँखों पे चश्मा, हमें देख कर कहा - "अच्छा....आप ही हमारे लिए आये हैं...बहुत धन्यवाद" हम सबने ने एक दूसरे का चेहरा देखा, फिर उनके पीछे हो लिए. बाबा हमें बगीचे में लेकर गए और बताया की क्या क्या करना है, फिर सब्जियों का खेत भी दिखाया, वहाँ भी कुछ काम था. हम सब चुप चाप क्यारियों को साफ़ करने में लग गए. धीरे धीरे करके काफी सारे बुज़ुर्ग बाहर निकल कर हमें देख रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे. पता नहीं क्या बात कर रहे थे...मैंने कोशिश नहीं की सुनने की. ११ बजे के आस पास बगीचे वाला काम ख़तम करके रसोई में पहुंचे. हमने चूकी भोजन प्रायोजित किया था इसलिए वहां का रसोइया ही खाना बना रहा था, हम बस थोड़ी बहुत उसकी मदद कर रहे थे. भोजन का समय हुआ, धीरे धीरे सभी लोग हॉल में आ गए, "अम्मा को ले आओ कोई", किसी ने कहा, बूढी 'अम्मा' किसी का सहारा लेकर हॉल में आ रही थीं. सफ़ेद और छोटे छोटे नीले छींट वाली सूती साडी, पूरे चेहरे पर झुर्रियां, गले में तुलसी जी की माला...ये तो बिलकुल मेरी नानी जैसी दिखती हैं. 'अम्मा' आकर एक कुर्सी पर बैठीं, उनको नीचे बैठने में दिक्कत होती थी, पीठ झुक चूकी थी. मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छू लिए, उन्होंने सर पे हाथ रख दिया. लेकिन ये क्या? ये स्पर्श भी बिलकुल मेरी नानी और दादी जैसा है. फिर किसी ने उनसे कहा "आज ये बच्चे आये हैं हमारे लिए". 'अम्मा' कुछ नहीं बोलीं. हम सबने भोजन परोसना शुरू किया, थोडा बहुत हंसी का दौर चला. अच्छा लगा देख कर. सभी आपस में एक परिवार की तरह रह रहे थे, कितनी देखभाल करते हैं सब एक दूसरे की, इतना प्यार...

खाने के बाद मैं 'अम्मा' को पकड़कर बाहर बगीचे में ले गयी, नेपथ्य में ये भी रील चल रही थी - "आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं".
'अम्मा' मुझसे मेरे बारे में पूछने लगीं, परिवार के बारे में बताते बताते अचानक से से मैं बोल पड़ी -"आप मेरी नानी और दादी जैसी दिखती हैं", कुछ गलत तो नहीं बोल दिया मैंने?
उन्होंने पूछा, "तुम्हारी नानी अपने घर पर रहती हैं?", "जी", "मामा मामी के साथ?", "जी". 'अम्मा' चुप हो गयीं और मैं भी. मैं इधर उधर देखने लगी, फूलों की बातें करने लगी. कोने से देखा तो 'अम्मा' अपने आँचल से अपनी आँखें पोंछ रही थीं और कहा "अजय भी फोने करता है" "अम्मा, पैसे भेज दिए हैं", मैंने अनसुना कर दिया और क्यारियों में कुछ खोदने लगी.

Sunday, June 6, 2010

लघुशंका की शंका


बचपन में टी वी पे जो भी देखती थी, वो बनना चाहती थी. पाइलट से लेकर जासूस तक! कई बार तो मैं खुद ही मम्मी की चीज़ें छुपा कर जासूस बन के उन्हें खोजा करती थी. खेल कूद में बचपन से बहुत रूचि रही है. नानाजी और मामा, दोनों ही राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके थे, इसलिए मेरे मन में भी कुछ कर दिखने की इच्छा थी. क्रिकेट, बैडमिन्टन, कैरम इत्यादी का हमारे घर में वर्चस्व था लेकिन मुझे तैराकी बहुत अच्छी लगती थी. मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण खेल कूद को मैं अपना कैरियर नहीं बना सकती थी, सिर्फ पढाई लिखाई ही मेरी संगिनी बन के रह गयीं. मम्मी पापा ने कहा "वो सब करके मैं कर करुँगी??"

विदेश आते ही बचपन की वो सारी इच्छाएं कुलबुलाने लगीं, टेनिस क्लास में नाम लिखवाया...स्कींग सीखने गयी..डांस क्लास गयी और स्वीमिंग लेसन में भी नाम लिखवाया. स्वीमिंग क्लास अभी भी चल रही है, पर अभी बहुत अच्छे से तैरना नहीं आया है.

स्वीमिंग की पहली क्लास में हमें कुछ नियम बताये गए. पहला नियम है सार्वजनिक पूल में जाने से पहले और आने के बाद नहाना. लेकिन बहुत कम ही लोग इसका पालन करते हैं. कुछ लोग तो नहाने के लिए पूल में चले जाते हैं हैं. मैंने अपने अपार्टमेन्ट के पूल में बहुत सारे ऐसे लोग देखे हैं जो लगता है कई दिनों से नहीं नहाये हैं. खैर...वहां तक तो आप क्लोरिन के भरोसे बर्दाश्त भी कर लें लेकिन एक आंकड़े के अनुसार २५% लोग पूल में लघु शंका करते हैं, इसका क्या करें???? हर जगह साफ़ सुथरे प्रसाधन कक्ष बने रहने के बावजूद लोग ऐसा क्यूँ करते हैं ये मेरी समझ से बाहर है. लेकिन इतना सब जानने के बाद मेरी हिम्मत नहीं होती पब्लिक पूल में जाने की. और भी ना जाने क्या क्या दिमाग में आता है...अमेरिकंस तो टीशू पेपर.... खैर छोडिये ....

एक अनुसंधान के अनुसार ऐसा करने वाले लोग दो प्रकार के होते हैं, एक तो वो जिन्हें ऐसे करने से मज़ा आता है(मुझे भी नहीं पता की क्या मज़ा मिलता है), और दूसरे वो जो अपने ब्लाडर की संचालन क्षमता खो चुके हैं. इस ग्रूप के लिए बनाया गया है पानी वाला डाइपर, वाटर प्रूफ डाइपर. पहनिए और काम पर चलिए. और पहली जमात के लोगों के इलाज के लिए बनाया गया है एक प्रकार का केमिकल, जो पूल में "यूरिक एसिड" को प्रकट कर देता है, तो अगर कोई महोदय/महोदया अपना काम कर रहे हैं, ये केमिकल तुरंत "यूरिक एसिड" को लाल कर देता है. और पकडे जानेपर भारी जुर्माना भरना पड़ता है. लेकिन ऐसे लोग तो वहां पकडे जायेंगे जहाँ ये केमिकल होगा, उस पूल का क्या जहाँ सभी भेंडिया धसान मचाये रहते हैं?

क्या कहा? पूल से दूर रहूँ?? हाँ, लगता तो यही है, इस लघुशंका की शंका ने घृणित कर दिया है.

Wednesday, June 2, 2010

डेबी की डेस्क




डेबी मेरे साथ आई बी एम् में काम करती थीं. वो पिछले १३ साल से आई बी एम् से जुडी हुई थीं, कल उनका विदाई समारोह था. दो वर्ष पहले वो फ्लोरिडा से कोलोराडो ऑन-साईट काम करने के लिए स्थान्तरित हुई थीं. फ्लोरिडा वाला घर बेचा, बच्चों से दूर हुयीं, पोते-पोती और नाती-नातिन से भरा पूरा परिवार छोड़ कर अकेले यहाँ आयीं. अकेले इसलिए क्यूंकि तलाक हो चुका है. यहाँ आकार फिर से नए सिरे से शुरुवात की ही थी की उनके जाने की घोषणा कर दी गयी. डेबी के हिस्से का काम इंडिया आउट सोर्स कर दिया गया.

पिछले हफ्ते सुबह ९ बजे वाली टीम हडल में घोषणा की गयी की डेबी अब हमारे साथ नहीं रहेंगी क्यूंकि उनका काम इंडिया भेजा जा रहा है. अपनी टीम में मैं अकेली भारतीय हूँ. बाकी सब अमेरिकन. ये खबर सुन के समझ में नहीं आया की मैं अपने देश की उन्नति पर खुश होऊं या अपनी मित्र के जाने पर दुःख जताऊँ. कर्म भूमि तो यहीं है न!

किसी ने मुझसे पूछा की मुझे कैसा लगता अगर मेरा काम किसी और को दे दिया जाता और मेरे लिए दो जून की रोटी जुटानी मुश्किल हो जाती? बहुत ज्वलनशील प्रश्न था लेकिन मैंने कहा की मुझे भी उतना ही दुःख होता लेकिन वैश्वीकरण के दौर में हर कोई होड में आगे निकलना चाहता है.

मुझे आज सुबह उनकी डेस्क पे शिफ्ट होने के लिए बोला गया, शिफ्ट हो गयी लेकिन किसी काम में मन नहीं लग रहा था. सोचती रही की इस कठिन समय में कैसे निर्वाह होगा? एक दो बार फोन भी मिलाने की हिम्मत जुटाई लेकिन शायद कम थी. क्या पूछती? सहानुभूति जताती तो वो भी व्यंग लगती, भारतीय हूँ न! . शायद अगले महीने फोन करूँ.... पता नहीं.....


** ये पोस्ट मैं डेबी के डेस्क पे ही बैठ के लिख रही हूँ!